Worms – पेटके कीड़े / कृमी
इसे आयुर्वेदने कृमिरोग कहा
है । शरीरमे हमेशा कृमि उत्पन्न होते रहते है । उसमेसे कुछ शरीरके अंदर रहते है तो
कुछ शरीरके उपर । इनके दो प्रकार है – सहज कृमि और वैकारिक कृमि । सहज कृमि याने
शरीर व्यापार ठीकसे चलने के लिये जो कृमि शरीरको सहाय्य करते है वह कृमि । वो अविकारी
रहते है याने शरीरमे कोई रोग पैदा नही करते है । दुसरे प्रकारके कृमि है वैकारिक
कृमि । याने जो शरीरमे बाहरसे प्रवेशित होते है और शरीरमे कुछ ना कुछ बिमारियाँ
पैदा करते है ।
ऐसे वैकारिक कृमि आयुर्वेदके अनुसार दो प्रकार के है । १) बाह्य कृमि – ये शरीरके लोम, केश और कपडेपर रहते है । जैसेकी जुएँ, लीख इ. २) अभ्यंतर कृमि – जो शरीरके अंदर पेटमे या रक्तमे रहते है वह अभ्यंतर कृमि है । अजीर्ण रहते भोजन करना, मिठी-खट्टी-नमकीन चीझोंका अतिसेवन, दही – गुड़ – हरी सब्जी का अतिसेवन, खराब - बाँसी पदार्थोंका सेवन, मिट्टी खानेकी आदत आदि कारनोंसे शरीरमे कृमी निर्माण होते है । भूक कम हो जाना या जादा लगना, गुदभागमे खुजली, पेटमे दर्द, चक्कर आना, कभी कभी पतले दस्त लगना, जी मचलना, मुँहमे पानी छुटना, पुरे बदनपे खुजली चलना, चेहरेपर विवर्णता आना ऐसे कई लक्षण कृमिरोगमे देखनेको मिलते है । वैसे पानी या अन्नके माध्यमसे सबके शरीरमे रोज़ कृमी जातेही है । पर हर एक के शरीरमे वह रह नही पाते । इसका यही कारन है की जिनको अजीर्ण है उनके शरीरमेही कृमी जीवित रह सकते है । इसलिये कृमिरोगकी चिकित्सा करते समय अजीर्ण, अपचन दूर करना अहं बात है । आधुनिक वैद्यकशास्त्रके अनुसार इसे Worms कहा जाता है । इनके कई प्रकार है जैसे की - thread worm, tape worm, hook worm , round worm etc…etc… |
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